ग़ज़ल
जो ज़रूरी है बस वही कम है
ग़म ज़ियादा हैं और ख़ुशी कम है
क्या हमारी ये बे बसी कम है
हैं बहुत काम ,ज़िदगी कम है
चश्मे साक़ी तो मेहरबां है मगर
क्या करें अपनी प्यास ही कम है
आज शायद वो मान जाएँगे
आज कुछ उन की बेरुखी कम है
आज तो बे नकाब आ जाओ
आज महफ़िल में रौशनी कम है
फूल खिलते हैं दोस्ती के मगर
इन में खुशबूए दोस्ती कम है
जब से फूलों ने उन को देखा है
तब से फूलों में ताजगी कम है
कौन यह दूर हो गया ''फ़ारूक़''
चाँद तारों में दिलकशी कम है
Saturday, November 27, 2010
Wednesday, November 3, 2010
ग़ज़ल
वो कब का जा भी चुका कर के बेक़रार मुझे
ये कौन देता है आवाज बार बार मुझे
मैं अपने चाहने वालों को पीछे छोड़ आया
ये कौन देता है आवाज़ बार बार मुझे
वो एक नाम जिसे जानता था तू या मैं
एगर हो याद उसी नाम से पुकार मुझे
जो तू नहीं तो सुहाने महकते मौसम का
हर एक फूल भी लगने लगा है खार मुझे
वो एक नाम जिसे जानता था तू या मैं
अगर हो याद उसी नाम से पुकार मुझे
तेरा इशारा भी हो जाए तो संवर जाऊं
मैं तेरे चक पे मिटटी हूँ अब सँवार मुझे
ये नफरतों का समंदर है ख़त्म पर शायद
दिखाई दी है परिंदों की एक क़तार मुझे
बस उस की एक झलक मैं ने दीखी थी फ़ारूक़
फिर उसके बाद न था दिल पे अख्तियार मुझे
दौरे माज़ी भुला दिया जाए
जिस तरह बन पड़े जिया जाए
तुझ से दूरी मेरा मुक़द्दर है
अब मुक़द्दर को क्या किया जाए
ये कौन देता है आवाज बार बार मुझे
मैं अपने चाहने वालों को पीछे छोड़ आया
ये कौन देता है आवाज़ बार बार मुझे
वो एक नाम जिसे जानता था तू या मैं
एगर हो याद उसी नाम से पुकार मुझे
जो तू नहीं तो सुहाने महकते मौसम का
हर एक फूल भी लगने लगा है खार मुझे
वो एक नाम जिसे जानता था तू या मैं
अगर हो याद उसी नाम से पुकार मुझे
तेरा इशारा भी हो जाए तो संवर जाऊं
मैं तेरे चक पे मिटटी हूँ अब सँवार मुझे
ये नफरतों का समंदर है ख़त्म पर शायद
दिखाई दी है परिंदों की एक क़तार मुझे
बस उस की एक झलक मैं ने दीखी थी फ़ारूक़
फिर उसके बाद न था दिल पे अख्तियार मुझे
अपना भरम जहाँ में बनाये हुए हूँ मैंइज्ज़त किसी तरह से बचाए हुए हूँ मैंखुद हो रहा हूँ जिनकी लवों से मैं रख रखऐसे भी कुछ चारघ जलाए हुए हूँ मैं
दौरे माज़ी भुला दिया जाए
जिस तरह बन पड़े जिया जाए
तुझ से दूरी मेरा मुक़द्दर है
अब मुक़द्दर को क्या किया जाए
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