Thursday, January 20, 2011

ग़ज़ल

लगता है लुट ही जाऊंगा ए यार अबकी बार मैं
इन रह्ज़नों के शहर में कब तक रहूँ बेदार मैं

ज़हनो दिलो लब दस्तो पा अब सब हैं मुझ से मुनहरिफ़
इन अपने लश्करियों से हूँ  हारा हुआ सालार मैं

सोचा था वह भी आएगा मेरा तमाशा देखने
उस की गली में उम्र भर रक्सां रहा बेकार मैं

माएल न उसको कर सका काएल न उस को जकर सका
सव सव तरह से  इश्क का करता रहा इज़हार मैं