ग़ज़ल
जो ज़रूरी है बस वही कम है
ग़म ज़ियादा हैं और ख़ुशी कम है
क्या हमारी ये बे बसी कम है
हैं बहुत काम ,ज़िदगी कम है
चश्मे साक़ी तो मेहरबां है मगर
क्या करें अपनी प्यास ही कम है
आज शायद वो मान जाएँगे
आज कुछ उन की बेरुखी कम है
आज तो बे नकाब आ जाओ
आज महफ़िल में रौशनी कम है
फूल खिलते हैं दोस्ती के मगर
इन में खुशबूए दोस्ती कम है
जब से फूलों ने उन को देखा है
तब से फूलों में ताजगी कम है
कौन यह दूर हो गया ''फ़ारूक़''
चाँद तारों में दिलकशी कम है
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चश्मे साक़ी तो मेहरबां है मगर
ReplyDeleteहालांकि पूरी ग़ज़ल ही कमाल है लेकिन मुझे यह शेर बेहद पसंद आया. फ़ारूक़ साहब, आप माशाअल्लाह बहुत ही अच्छे अशआर कहते हैं. दूसरों के ब्लॉग पर जा कर उनसे सम्पर्क करें, उनकी रचनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया दें, तभी लोग आपको जानेंगे और आपके ब्लॉग का रुख करेंगे. क्या करें अपनी प्यास ही कम है