Saturday, November 27, 2010

ghazal

ग़ज़ल
जो ज़रूरी है बस वही कम है
ग़म ज़ियादा  हैं और ख़ुशी कम है


क्या हमारी ये बे बसी कम है
हैं बहुत काम ,ज़िदगी कम है


चश्मे साक़ी तो मेहरबां  है  मगर 
क्या करें अपनी प्यास ही कम है


आज शायद वो मान जाएँगे
आज कुछ उन की बेरुखी कम है


आज तो बे नकाब आ जाओ
आज महफ़िल में रौशनी कम है


फूल खिलते हैं दोस्ती के मगर
इन में खुशबूए दोस्ती कम है


जब से फूलों ने उन को देखा है
तब से फूलों में ताजगी कम है


कौन यह दूर हो गया ''फ़ारूक़''
चाँद तारों  में दिलकशी कम है

1 comment:

  1. चश्मे साक़ी तो मेहरबां है मगर
    हालांकि पूरी ग़ज़ल ही कमाल है लेकिन मुझे यह शेर बेहद पसंद आया. फ़ारूक़ साहब, आप माशाअल्लाह बहुत ही अच्छे अशआर कहते हैं. दूसरों के ब्लॉग पर जा कर उनसे सम्पर्क करें, उनकी रचनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया दें, तभी लोग आपको जानेंगे और आपके ब्लॉग का रुख करेंगे. क्या करें अपनी प्यास ही कम है

    ReplyDelete