Wednesday, November 3, 2010

ग़ज़ल

वो कब का जा भी चुका  कर के बेक़रार  मुझे
ये कौन देता है आवाज  बार बार मुझे

मैं अपने चाहने वालों को पीछे छोड़ आया
ये कौन देता है आवाज़ बार बार मुझे

वो एक नाम जिसे जानता था तू या मैं
एगर हो याद उसी नाम से पुकार मुझे

जो तू नहीं तो सुहाने महकते मौसम का
हर एक फूल भी लगने लगा है खार मुझे 

वो एक नाम जिसे जानता था तू या मैं
अगर हो याद उसी नाम से पुकार मुझे

तेरा  इशारा भी हो जाए तो संवर जाऊं 
मैं तेरे चक पे मिटटी हूँ अब सँवार मुझे  

ये नफरतों का समंदर है ख़त्म पर शायद
दिखाई   दी है परिंदों की एक  क़तार मुझे

बस उस की एक   झलक मैं ने दीखी थी फ़ारूक़
फिर उसके बाद न था दिल पे अख्तियार मुझे

अपना भरम जहाँ में बनाये हुए हूँ मैं
इज्ज़त किसी तरह से बचाए हुए हूँ मैं
खुद हो रहा हूँ जिनकी लवों से मैं रख रख
ऐसे भी कुछ चारघ जलाए हुए हूँ मैं
                                                                                     
दौरे माज़ी भुला दिया जाए
जिस तरह बन पड़े जिया जाए
तुझ से दूरी मेरा मुक़द्दर है
अब मुक़द्दर को क्या किया जाए
 

1 comment:

  1. कमाल के अशआर रक़म किए जनाब आपने. 'फ़िराक़' की जमीन में शेर कहना, और उससे बेहतर कहना, मोजिज़ा ही कहा जाएगा. इस कामयाब ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद.

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